बीते दिनों दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी चर्चा में रही. सीबीआई ने दिल्ली सरकार की साल 2021 की शराब नीति में अनियमितताओं के सिलसिले में ये गिरफ़्तारी की है.
इस गिरफ़्तारी को आम आदमी पार्टी सहित कई विपक्षी दलों ने राजनीति से प्रेरित बताया है. पार्टियों का कहना है कि केंद्र सरकार उन राज्यों के मंत्रियों और नेताओं को टार्गेट कर रही है जहाँ विपक्षी पार्टियाँ सरकार चला रही हैं.
इसी तरह इन दिनों छ्त्तीसगढ़ में एक और केंद्रीय जांच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी पूरी तरह सक्रिय है. एक के बाद एक छ्त्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के मंत्रियों और कई नौकरशाहों को 2020 में हुए कोयले से जुड़े एक घोटाले के मामले में अक्टूबर 2022 से कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर पूछताछ के लिए समन किया जा रहा है और कई गिरफ्तारियाँ की जा चुकी हैं.
बीते कुछ महीनों से बार-बार ये बात विपक्ष और एक तबका दोहरा रहा है कि केंद्रीय एजेंसियों को मोदी सरकार विपक्ष को ‘काबू’ में करने के लिए इस्तेमाल कर रही है.
हालाँकि जब देश में यूपीए की सरकार थी तो सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में टिप्पणी की थी कि ‘सीबीआई सरकार का तोता है.’ केंद्र में बैठी सरकार अपने मातहत काम करने वाली एजेंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ कर रही है, यह आरोप नया नहीं है.
ऐसे आरोप अतीत में भी सरकारों पर लगते रहे हैं लेकिन एक नया ट्रेंड है प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी का बीते नौ सालों में हुआ पुरज़ोर इस्तेमाल.
बीबीसी ने ऐसे ही कुछ मामलों को बारीक़ी से समझा, जानकारी जुटाई और ये भी समझना चाहा कि क्या बीते नौ सालों में ईडी और सीबीआई का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ किया गया, इसके अलावा इसकी भी पड़ताल की गई जब विपक्षी पार्टी के नेता दल-बदलकर बीजेपी में शामिल हुए तो उनके ख़िलाफ़ शुरू की गई जाँचों का क्या हुआ?
इसके लिए हमने महाराष्ट्र, असम, पश्चिम बंगाल, दिल्ली के लिए ऐसे मामले चुने जिनमें विपक्षी पार्टी के नेताओं को शिकंजे में लिया गया था.
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