Editorial

शायरी चारा समझकर हर गधा चरने लगा, उर्दू ज़ुबां आती नहीं और शायरी करने लगा

कहते हैं किसी भी मुल्क में जो चीज़ ज़्यादा इस्तेमाल में आती है उस मुल्क में उस चीज़ का अव्वल दर्ज़ा होता है।
हमारे मुल्क में सबसे ज्यादा हिंदी भाषा का इस्तेमाल होता है लगभग 60 करोड़ लोग हिंदी भाषा का इस्तेमाल करते हैं इसलिए हमारे मुल्क का नाम हिंदुस्तान है।
हिंदी भाषा के बाद हमारे मुल्क में उर्दू भाषा का इस्तेमाल होता है या हम यूं भी कह सकते हैं पूर्ण रूप से 60 करोड़ लोग हिंदी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते इसमें भी 50% उर्दू के वर्ड इस्तेमाल किए जाते हैं। हमारे मुल्क में आजकल एक बात बहुत ज़ोर पकड़े हुए हैं और वह बात यह है कि साहित्य के क्षेत्र में विद्यार्थियों को प्रोत्साहन राशि दी जाए, उनको ज़्यादा से ज़्यादा साहित्य के क्षेत्र में लिखने के अवसर प्रदान किए जाएं, उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा साहित्य के क्षेत्र में लिखने पर प्रेरित किया जाए आदि।
उन सबके लिए मेरा कहना है
*शायरी चारा समझकर हर गधा चरने लगा*
*उर्दू ज़ुबां आती नहीं और शायरी करने लगा*
इस तरह से हमारे मुल्क की दूसरी भाषा उर्दू होनी चाहिए ना की इंग्लिश।
जबकि बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है संस्कृत भाषा को इस्तेमाल करने वाले पूरे भारत में 2011 की जनगणना के तहत मात्र 15 लाख लोग हैं।
मैं अपने मुल्क के बादशाह तक अपना पैगाम पहुंचाना चाहती हूं अगर आपके अंदर ईमानदारी है तो उर्दू को दूसरा स्थान क्यों नहीं देते जबकि उर्दू को तो कोई स्थान ही नहीं दिया गया है क्या हम 14.2 पर्सेंट मुसलमानों का यही अस्तित्व है भारत में।
क्या भारत के बादशाह नहीं जानते भारत ने जितनी भी तरक्की की है वह सब मदरसा शिक्षा से ही हासिल की हैं चाहे फिर गांधीजी क्यों ना हो मुंशी प्रेमचंद जी क्यों ना हो डॉक्टर अब्दुल कलाम जी क्यों ना हो कोई एक भी जानी मानी हस्ती ऐसी है जिसने अपनी तालीम मदरसा से ना प्राप्त कि हो कोई एक भी पूर्वज कोई एक भी व्यक्ति ऐसा है।
एनसीईआरटी ने 2017 मे सिलेबस पेटर्न चेंज किया तो उर्दू विषय की कोई किताब ही नहीं छापी।
किसान अपना मुद्दा उठाएं और विजय हासिल कर लें अधिकार उनको है लेकिन हम अपना ना मुद्दा उठाये ना ही विजय हासिल करें अगर मुद्दा उठाएं तो हम जिहादी बन जाते हैं यह कहां का इंसाफ है।
क्या हमारे आगे पेट नहीं? क्या हमें रोजगार नहीं चाहिए?
भारत का कोई भी एक ऐसा राज्य नहीं जिसमें हज़ारों मदरसे ना हो उसमें हज़ारों स्टूडेंट ना हों और उन सब का हनन ना हुआ हो उन सब के साथ खिलवाड़ ना हुआ हो और इस सब की जानकारी भारत सरकार को ना हो
उत्तराखंड के अंदर पिछले 30 साल से उर्दू बोर्ड के नाम से हजारों स्टूडेंट अपना भविष्य बेकार कर चुके हैं और इसका इल्म उत्तराखंड सरकार को है लेकिन उत्तराखंड सरकार कानपर जू रिंगाने के लिए तैयार नहीं है। हमने खुद 10 मर्तबा जिओ दे रखा है बोर्ड का लेकिन सरकार उसको अप्रूव नहीं कर रही अनुमोदन नहीं दे रही क्योंकि सरकार जानती है हज़ारों की तादात में बच्चों ने उर्दू तालीम हासिल कर रखी है अगर इन को मान्यता दी जाएगी तो यू रोज़गार मांगेंगे जो कि उत्तराखंड में और पूरे भारत में उर्दू स्टूडेंट को कभी रोज़गार नहीं मिलेगा यह नीति है हमारे भारत सरकार की

*अंजुम क़ादरी*✍🏻

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