Editorial

पर्यावरण दिवस पर चिपको मूवमेंट

अंजुम क़ादरी
इंडियन गवर्नमेंट वॉलिंटियर कोविड-19

लगभग 300 साल पहले राजस्थान के एक राजा ने चुना बनाने के लिए अपने रजवाड़े में खेजरी के पेड़ों को कटवाने का फैसला किया पेड़ों की कटाई रोकने के लिए अमृता देवी नाम की एक बिश्नोई स्त्री के नेतृत्व में स्त्रियां इन पेड़ों से चिपक गई यह ऐसे दुर्लभ संसाधनों के आधार थे जिन पर लोगों का जीवन निर्भर था स्त्रियां बेरहमी से मार दी गई कहते हैं कि बाद मे राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ पर इस घटना को लोगों ने याद रखा और 1970 के दशक में इसे तब दोहराया गया जब हिमालय क्षेत्र में इमारती लकड़ी के ठेकेदारों के हाथों वनों का विनाश रोकने के लिए स्थानीय स्त्रियों ने एक जन आंदोलन आरंभ किया उनका समर्थन सुन्दर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोगों ने किया पेड़ों से चिप कर स्त्रियों के जान देने की घटना की याद में लोगों ने इस आंदोलन को चिपको आंदोलन नाम दिया इस आंदोलन ने वही रास्ता अपनाया जो तीन सदी पहले 300 बिश्नोई स्त्रियों ने दिखाया था चिपको मुख्यता गढ़वाल उत्तराखंड के पहाड़ों में स्थानीय स्त्रियों द्वारा शुरू किया गया आंदोलन है यहां वनों के विनाश की मार मुख्यता स्त्रियों को भुगतनी पड़ रही थी उन्होंने महसूस किया कि इमारती लकड़ी की व्यापारी कटाई के कारण ईंधन और चारा जैसे संसाधन उनकी बस्तियों के पास स्थित संसाधन उपयोग के क्षेत्रों से दूर हट रहे थे इतना ही नहीं उन्होंने यह भी देखा कि इसके कारण भारी बाढ़ आ रही थी और कीमती मिट्टी बर्बाद हो रही थी वन विनाश के विरोध में चिपको कार्यकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र में लंबी लंबी पदयात्रा की हैं यह आंदोलन अत्यंत सफल रहा और मुख्यता स्थानीय स्त्रियों के समर्थन पर चला जो वन विनाश से सबसे अधिक प्रभावित थी इस आंदोलन ने दुनिया को दिखाया कि पहाड़ों के जंगल स्थानीय समुदायों के जीवन के आधार हैं स्थानीय पैदावारो की दृष्टि से उनका भारी मूल्य तथा वन भले ही परिणाम में कम मगर बहुत अधिक महत्वपूर्ण पर्यावरण सेवाएं देता है जैसे मृदा संरक्षण और पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक जल व्यवस्था का संरक्षण हिमालय की तलहटी में स्थानीय स्त्रियों के एकजुट होने का इतिहास आजादी से पहले का है जब गांधी जी की शिष्या मीराबेन जैसी स्त्रियां क्षेत्र में आई और उन्होंने समझा कि वादी के गांव और नीचे गंगा के मैदान में बाढ़ और तबाही का कारण वनो का विनाश है उन्होंने यह भी समझा कि हिमालय क्षेत्र के ओक और चौड़े पत्तों वाले दूसरे पेड़ों की जगह इमारती लकड़ी और रेज़िन के लिए तेज़ी से बढ़ने वाले चीड़ वृक्ष उगाना एक पर्यावरण संबंधी भूल है और सामाजिक तबाही का कारण है जिसने परंपरागत पहाड़ी समुदाय के उपयोग वाले वन्य संसाधनों में कमी की है
आज हमारे बीच चंडी प्रसाद और सुन्दर लाल बहुगुणा जी मौजूद नहीं है इसीलिए वनों का विनाश तेजी से शुरू हो गया है।

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