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नेतृत्व से ज्यादा कांग्रेसजन दोषी

सोनिया गांधी

सोनिया गांधी की पहले मंशा थी कि 70 वर्ष की हो जाने पर वे सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लेंगी. इसी कारण दिसंबर 2016 में वे राजनीति से रिटायर भी होने वाली थीं. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का बहुत बुरा हाल हुआ और वह सत्ता से बाहर हो गयी. पार्टी की ऐसी स्थिति देखते हुए उन्होंने अपना संन्यास लेना टाल दिया. दिसंबर 2017 में, गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का आकलन था कि पार्टी अच्छा करेगी. इसी समय राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया गया. इस चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन लगभग बराबरी पर खत्म हुआ, लेकिन वह सरकार नहीं बना सकी. इसके बाद कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान चुनाव जीता और सरकार बनायी. लेकिन, मई 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा. अमेठी से हारने के बाद राहुल गांधी ने रोष में और हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. वर्षों से कांग्रेस की एक आदत बनी हुई है कि किसी भी बड़े राजनीतिक निर्णय के लिए उसके सभी सदस्य गांधी परिवार की तरफ देखते हैं. वहीं से उनको दिशा मिलती है. राहुल गांधी के इस्तीफा देने के बाद मई से जुलाई-अगस्त तक कांग्रेस में अनिर्णय की स्थिति रही. सभी ने उन्हें मनाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने. इसके बाद बीते वर्ष नौ और दस अगस्त को कांग्रेस मुख्यालय में गुप्त मतदान के जरिये पार्टी के 150 प्रमुख नेताओं की राय ली गयी, जिसमें 148 ने अध्यक्ष पद के लिए सोनिया और राहुल गांधी का ही नाम लिया.
चूंकि राहुल गांधी तैयार नहीं थे, इसलिए सोनिया गांधी खुद अंतरिम अध्यक्षा बन गयीं. हालांकि वे चाहती थीं कि एक वर्ष के अंदर ही कांग्रेस अपना अध्यक्ष चुन ले. इसी बीच राजस्थान में राजनीतिक संकट शुरू हो गया और मामला अटक गया. जब तक राजस्थान का राजनीतिक संकट दूर नहीं हो जाता है, तब तक सोनिया गांधी ही अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी. इसके बाद ही राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की प्रक्रिया आरंभ होगी.
राजनीति में जीत और सफलता ही नेता के कद को बढ़ाती या घटाती है. चूंकि राहुल गांधी लोकसभा में अमेठी से अपना चुनाव हार गये थे, इसलिए उनके नेतृत्व में कांग्रेस को इतना भरोसा नहीं है. दूसरी बात, राहुल गांधी चाह रहे हैं कि उनको खुली छूट मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है. सोनिया गांधी कांग्रेस के बड़े पदाधिकारियों (ओल्ड गार्ड) और राहुल गांधी के बीच समन्वय स्थापित करना चाहती हैं. इस कारण भी थोड़ी देर हो रही है. कांग्रेस में अध्यक्ष को लेकर कोई समस्या नहीं है.
कांग्रेसजन इस बात को लेकर मानसिक रूप से तैयार हैं कि सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ही पार्टी के अध्यक्ष होंगे. यहां जितनी भी अंदरूनी लड़ाई है, वह अध्यक्ष के बाद के पदों को लेकर है. यह सच है कि नेतृत्व का असर पार्टी पर पड़ता है. उसी के फैसले से पार्टी को दिशा मिलती है, उसकी राजनीतिक गतिविधियां आगे बढ़ती हैं. कांग्रेस में सोनिया गांधी अध्यक्षा हैं, राहुल गांधी पूर्व अध्यक्ष हैं, प्रियंका गांधी महामंत्री हैं, बहुत से मामलों में इन तीनों की राय अलग-अलग होती है. तो इन सबकी वजह से भी कुछ व्यावहारिक समस्याएं आती हैं.
किसी भी राजनीतिक दल के उत्थान-पतन के लिए पार्टी नेतृत्व जितना दोषी होता है, पार्टी के बाकी सदस्य भी उतने ही दोषी होते हैं. क्योंकि, हार-जीत एक व्यक्ति से तय नहीं होती है, इसमें पार्टी नेतृत्व से लेकर कार्यकर्ताओं तक की बराबर हिस्सेदारी होती है. इसके लिए किसी अकेले को श्रेय या दोष देना सही नहीं है. कांग्रेस की समस्या यह है कि इसके सदस्यों ने बहुत समय से आंतरिक लोकतंत्र को तिलांजलि दे दी है. इसके लिए वे प्रयास ही नहीं करते. पार्टी के संविधान में है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के 15 प्रतिशत सदस्य मिलकर पार्टी का अधिवेशन बुला सकते हैं और अपने नेता को बाध्य कर सकते हैं कि आप नेतृत्व का निर्णय कीजिए. लेकिन कांग्रेस में ये मुहिम चलती ही नहीं है. संजय झा या शहजाद पूनावाला जैसे नेता, जो एआइसीसी के डेलिगेट भी नहीं हैं, उन्होंने ही अपने स्तर से बस विरोध किया है. लेकिन क्या आपने कभी देखा है कि शशि थरूर, कपिल सिब्बल जैसे कांग्रेस के बड़े और समझदार नेताओं ने किसी भी मुद्दे पर पार्टी में विरोध किया है.
जैसे, 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के चुने गये 52 सदस्यों में से नेता का चुनाव होना था, लेकिन ना शशि थरूर सामने आये, ना मनीष तिवारी. ऐसे में सोनिया गांधी ने अधीर रंजन चौधरी को नेता बना दिया और वे अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाये. यदि वहां चुनाव होता तो एक अच्छा नेतृत्व सामने आ सकता था. कांग्रेस के संगठन में जो बिखराव हुआ है, या गिरावट आयी है, उसके लिए गांधी परिवार कम दोषी है, कांग्रेस के दूसरे लोग ज्यादा दोषी हैं. क्योंकि जो अधिकार उनके पास है, उसका वे उपयोग ही नहीं करते हैं.
हर राजनीतिक दल में उतार-चढ़ाव आता है. वर्ष 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हारी थीं, तब पार्टी ने आत्मविश्वास नहीं खोया था. कांग्रेसजन को वापसी का भरोसा था. आज कांग्रेस में बहुत हताशा का माहौल है. कांग्रेस वही करना चाहती है जो भाजपा कर रही है, या कर चुकी है. इससे देश को वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं मिल पायेगा, जबकि देश हमेशा विकल्प ढूंढता है. हालांकि राहुल गांधी अपने स्तर से विकल्प पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. (बातचीत पर आधारित)

राशिद किदवई, लेखक व राजनीतिक विश्लेषक
rasheedkidwai@gmail.com

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