सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट के बाद अब बढ़ती महंगाई दर भी सरकार के लिए मुश्किल बन गई है. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़ उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर आधारित खुदरा महंगाई दर में बढ़ोतरी हुई है.
दिसंबर में खुदरा महंगाई दर बढ़कर 7.35 फ़ीसदी हो गई है जो नवंबर में 5.54 फ़ीसदी थी.
इसके अलावा खाद्य महंगाई दर में भी साल के आख़िरी महीने में बढ़ोतरी दर्ज की गई है.
नवंबर में खाद्य महंगाई दर 10.01 फ़ीसदी थी, जो दिसंबर में बढ़कर 14.12 फ़ीसदी हो गई.
महंगाई दर रिजर्व बैंक की अपर लिमिट को पार कर गई है, जो 2-6 फ़ीसदी है.
वहीं, रोज़गार के मामले में भी लोगो के लिए अच्छी ख़बर नहीं है.
एसबीआई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2019-20 में भारत में कुल 16 लाख नौकरियां कम हो सकती हैं.
इकोरैप (Ecowrap) नाम की एसबीआई के ये रिपोर्ट कहती है कि चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 में नई नौकरियों के अवसर कम हुए हैं. पिछले वित्तीय वर्ष 2018-19 में कुल 89.7 लाख रोज़गार के अवसर पैदा हुए थे जबकि वित्तीय वर्ष 2019-20 में सिर्फ़ 73.9 लाख रोज़गार पैदा होने का अनुमान है.
एसबीआई की इस रिपोर्ट का आधार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) में हुआ नामांकन है. ईपीएफओ के आंकड़े में मुख्य रूप से कम वेतन वाली नौकरियां शामिल होती हैं जिनमें वेतन की अधिकतम सीमा 15,000 रुपए प्रति माह है.
इससे ज़्यादा वेतन की सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियां राष्ट्रीय पेंशन योजना (एपीएस) के तहत आती हैं.
एसबीआई की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए वित्तीय वर्ष 2019-20 में एनपीएस में भी 26490 कम नौकरियां पैदा होंगी. ग़ैर-सरकारी नौकरियां तो बढ़ेंगी लेकिन सरकारी नौकरियों में कमी आएगी.
इसी महीने सरकार ने भी चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पांच फ़ीसदी तक बढ़ने का अनुमान जताया था. पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी विकास दर 6.8 फ़ीसदी थी. इससे पहले आरबीआई ने भी देश की विकास दर के अपने अनुमान को घटाकर पांच फ़ीसदी कर दिया था.
देश में आर्थिक वृद्धि को लेकर लंबे समय से चिंता प्रकट की जा रही है. सरकार ने भी इससे निकलने के लिए बीच-बीच में आर्थिक सुधार की घोषणाएं करके लोगों में उम्मीद बनाए रखने की कोशिश की लेकिन, फिर भी हालात में ख़ास सुधार नहीं हुआ है.
ऐसे में नौकरियों मे कटौती, बढ़ती महंगाई और देश की आर्थिक वृद्धि दर में कमी इन तीनों मोर्चों पर निराशा मिलने का लोगों की आर्थिक स्थिति पर क्या असर होगा. आने वाले साल में उनके लिए इसके क्या मायने हैं-
क्या होगा असर – वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार सुषमा रामचंद्रन कहती हैं, ”अगर महंगाई की बात करें तो दिसंबर में बढ़ी महंगाई के पीछे खाने के सामान की बढ़ी क़ीमतें मुख्य कारण हैं. हाल के दिनों में प्याज़, लहसुन और आलू के दाम काफ़ी बढ़े हैं. एसबीआई ने खुद कहा है कि अगर इन तीन चीजों को हटा दें तो महंगाई की दर कम हो जाती है.”
”फिलहाल लोगों के लिए मुश्किल है लेकिन आने वाले दिनों में राहत होगी. आलू, प्याज़ की नई फसल बाज़ार में आ रही है जिससे स्टॉक बढ़ेगा और दाम कम हो जाएंगे. लोगों पर सब्ज़ी के बढ़ते दामों का बोझ कुछ कम होगा और इससे पूरी महंगाई दर भी कम हो जाएगी. देखें तो ये आंकड़े दिसंबर के हैं क्योंकि अभी दाम में कुछ कमी आ गई है तो आने वाले आंकड़ों में महंगाई दर घट सकती है.”
”दूसरी बात करें नौकरियों की तो इसमें अच्छी ख़बर नहीं है. अगर नौकरियां कम हो जाएंगी तो ये अनुमान लगाया जाता है कि जिनके पास नौकरियां हैं उनकी सालाना वेतन वृद्धि (इनक्रिमेंट) भी कम हो जाएगी. जो युवा अभी नौकरियां ढूंढ रहे हैं उनके लिए ये बिल्कुल अच्छा नहीं है.”
”वहीं, आर्थिक वृद्धि को देखें तो ये साफ है कि मंदी की स्थिति है. बाज़ार में पैसे की कमी है जिसका असर नौकरियों और फिर लोगों की ख़र्च करने की क्षमता पर पड़ रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) हर दो महीने में होने वाली बैठक में ब्याज़ दर की कटौती पर गौर करता है. आने वाली बैठक में हो सकता है कि आरबीआई बढ़ती महंगाई को देखते हुए ब्याज़ दर में कटौती न करके उसे बढ़ा दे. लेकिन, अगर ब्याज़ दर बढ़ाई जाती है तो उसका असर बहुत ख़राब होगा. जिन्होंने लोन लिया हुआ है उन पर असर होगा. ऐसे में ज़्यादा संभावना है कि ब्याज़ दर न बढ़ाई जाए और क्योंकि आरबीआई ब्याज़ दर पहले भी घटाता रहा है तो अब वह मौजूदा स्थिति में रहने की कोशिश करेगा.”
एसबीआई की रोज़गार पर आई रिपोर्ट में भी कहा गया है कि धीमी विकास दर का असर रोज़गार सृजन पर भी पड़ेगा.
क्या हैं कारण – वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले साल दो से तीन बार आर्थिक सुधारों की घोषणाएं की जिसे मिनी बजट भी कहा गया. उसके बावजूद भी जीडीपी के आंकड़ों में सुधार नहीं है.
सुषमा रामचंद्रन बताती हैं, ”इसके पीछे अलग-अलग कारण हैं. जैसे जीएसटी लागू हुआ तो उसका असर कई क्षेत्रों में हुआ. लोगों को इसे समझने और एडजस्ट करने में समय लगा. इससे छोटे और मध्यम उद्योगों को डिजिटाइज होने में मुश्किलें आईं. वो जो काम नगदी में करते थे अब उन्हें कंप्यूटर पर करने पड़ रहे हैं. इस तरह उन क्षेत्रों में मंदी आई है. हालांकि, मैं मानती हूं कि जीएसटी एक अच्छा क़दम है इससे लंबे समय में फ़ायदे ज़रूर मिलेंगे.”
सुषमा रामचंद्रन कहती हैं कि इसके अलावा कई और कारण हैं जैसे निजी क्षेत्र निवेश करने से बच रहा है. एक तो मंदी का दौर है और दूसरा सकारात्मक निवेश का माहौल नहीं है.
देश में जो राजनीतिक माहौल बना हुआ है, विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उसका असर भी निवेश पर पड़ता है. तनाव की स्थिति में निजी क्षेत्र पैसा लगाने से बचते हैं. वहीं, बैंक से लोन लेने में भी उन्हें दिक्कत आ रही है. एनपीए मामले के बाद भी बैंक निजी क्षेत्र को लोन नहीं देना चाहते हैं.
रेटिंग एजेंसी केयर में चीफ़ इकोनॉमिस्ट मदन सबनवीस भी इससे सहमति जताते हैं.
वह कहते हैं कि सरकार आने वाले बजट में सुधार की कोशिशें करेगी. जैसे निजी क्षेत्र निवेश के लिए इच्छुक नहीं है तो सरकार को बुनियादी ढांचे जैसे कोयला, इस्पात, बिजली में निवेश करना होगा ताकि नौकरियां भी पैदा की जा सकें.
अगर सरकार दो से ढाई लाख करोड़ सड़क, रेलवे या शहरी विकास में ख़र्च करती है तो इससे जुड़े उद्योग जैसे सीमेंट, स्टील और मशीनरी में लाभ होगा और उससे मांग और विकास बढ़ेगी. अगर ये नहीं हुआ तो विकास दर का पांच से छह प्रतिशत तक पहुंचना मुश्किल है.
सरकार के मध्यावधि सुधार के प्रयासों पर मदन सबनवीस कहते हैं, ”सरकार ने मंदी की मार झेल रहे कुछ उद्योगों की समस्याओं के समाधान की कोशिश की है. जैसे ऑटोमोबाइल सेक्टर, रियल स्टेट, लघु उद्योगों के लिए बहुत सी घोषणाएं कीं. रियल स्टेट में कई प्रोजेक्ट्स अटके थे उनके लिए राहत दी. इन घोषणाओं का असर दिखने में एक दो साल लगेंगे.
अभी के हालात कितने मुश्किल – मदन सबनवीस का मानना है कि अर्थव्यवस्थाओं में समय-समय पर ऐसा होता है लेकिन 1991-92 के बाद से भारत में ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिली है. इसलिए एक तरह का पैनिक ज़रूर हुआ है. लेकिन, जिस तरह सरकार और आरबीआई इन समस्याओं पर काम कर रही है तो एक-दो सालों में सकारात्मक नतीजे आने की उम्मीद है.
क्या होगा बजट में – 2019 में बनी नई सरकार का पहला बजट एक फरवरी को पेश होने वाला है. विशेषज्ञों का पहले से ही कहना है कि सरकार की आर्थिक मोर्चे पर लड़ाई बजट में भी दिखाई देगी.
सुषमा रामचंद्रन कहती हैं कि सरकार ये कोशिश करेगी कि आम आदमी को कुछ राहत मिल सके और हाथ में पैसे आ सके. मंदी इस वजह से भी है कि लोग पैसा ख़र्च नहीं कर रहे. सरकार आयकर में कटौती कर सकती है, ग्रामीण रोज़गार सृजन के कार्यक्रमों में ज़्यादा पैसे दे सकती है ताकि ग्रामीण क्षेत्र में ज़्यादा पैसा आए और वो ख़र्च करें. अर्थव्यवस्था में जितनी मांग होनी चाहिए वो भी कम है, निर्यात घटा है और निजी क्षेत्र से निवेश भी कम हुआ है. उसकी वजह से आर्थिक वृद्धि दर घट रही है.
रोज़गार सीधे आर्थिक विकास पर निर्भर है. अगर हमारी जीडीपी छह से सात प्रतिशत तक जाएगी तो उससे रोज़गार अपने आप बढ़ेगा. पिछले तीन साल में यही हुआ कि नोटबंदी और जीएसटी से छोटे उद्योगों को दिक्कत आई है तो वहां रोज़गार में कमी आई है.
भारत की गिरती अर्थव्यवस्था का क्या होगा आम आदमी पर असर

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