M.H. mumbai State

सवाल ये उठता है कि गोवा, मणिपुर और हरियाणा में सरकार बना लेने वाली बीजेपी से आख़िर चूक कहां हुई महाराष्ट्र में ….

मंगलवार सबेरे तक अटकलें लगाई जा रही थीं की बुधवार को बीजेपी विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करेगी. लेकिन कुछ ही घंटों में खेल बदला और बीजेपी का साथ देने वाले एनसीपी नेता अजित पवार ने उप मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. इसके क़रीब एक घंटे बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर स्पष्ट कर दिया कि वो विपक्ष में बैठने के लिए तैयार हैं.
इसके तुरंत बाद फडणवीस राजभवन पहुंचे और उन्होंने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया. महाराष्ट्र की राजनीति के पल-पल बदलते घटनाक्रम ने कम से कम ये तो साबित कर ही दिया था कि राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. लेकिन सवाल ये उठता है कि गोवा, मणिपुर और हरियाणा में सरकार बना लेने वाली बीजेपी से आख़िर चूक कहां हुई.
चुनाव के नतीजे आने के बाद ये बात सबको पता थी कि जनादेश बीजेपी और शिवसेना को मिला था. लेकिन जब शिवसेना पीछे हट गई तो बीजेपी ने अपनी तरफ से कोई क़दम नहीं उठाया और उसने सीधा राज्यपाल से जा कर कह दिया कि वो सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है.
इसके बाद बीजेपी को लेकर पूरे देश में और महाराष्ट्र में एक सहानुभूति थी कि पार्टी का व्यवहार सम्मानजनक रहा है लेकिन अजित पवार के साथ मिलकर जो बीजेपी ने किया उससे उसने वो सहानुभूति भी खो दी है और प्रतिष्ठा भी खो दी है. साथ ही अमित शाह की जो छवि बनी थी कि वो बहुत बड़े चाणक्य हैं, रणनीतिकार हैं, कभी फेल नहीं होते है वो छवि भी टूट गई. चुनाव के बाद की हलचल को देखते हुए पूरे महाराष्ट्र की बात करें तो बीजेपी से पहली ग़लती वहां हुई जब विधानसभा चुनाव के दौरान एनसीपी प्रमुख शरद पवार के ख़िलाफ़ प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस गया था. इस मामले में उस वक्त मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को मीडिया के सामने आ कर कहना पड़ा था कि राज्य सरकार बदले की भावना से काम नहीं कर रही है और इसमें सरकार को कोई हस्तक्षेप नहीं है.
शरद पवार की एनसीपी ऐसी पार्टी थी जो महाराष्ट्र में बफर की तरह काम कर रही थी. जब शिवसेना का दबाव होता था तो एनसीपी, बीजेपी क मदद के लिए आ जाती थी.
2014 में जब बीजेपी के लिए बहुमत साबित करने की बारी थी तो एनसीपी ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया था.
चुनाव के दौरान वो पुल बीजेपी ने जला दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि जब शिवसेना ने साथ छोड़ा तो कोई बीजेपी के साथ नहीं था. बीजेपी ने अजित पवार के रूप में एक ऐसे व्यक्ति पर भरोसा किया जिसको वो पांच साल कर भ्रष्टाचारी बता कर, उसके ख़िलाफ़ जांच शुरू कर के ये बताते रहे कि इनसे बड़ा भ्रष्टाचारी कोई नहीं होगा.
उन्होंने एक ऐसी चिट्ठी पर भरोसा किया जो एक तरह से चोरी कर के लाई गई थी. शुरु से ही अजित पवार की स्थिति बेहद संदेहास्पद थी कि उनके पास कितने नंबर हैं. बीजेपी ये आकलन करने में नाकाम रही कि अजित पवार के साथ कितने विधायक होंगे. अब ऐसा लग रहा है कि बीजेपी ने सिर्फ़ उनकी बात पर भरोसा कर लिया था.
पार्टी के पास कोई प्लान बी नहीं था. अजित पवार जितने विधायकों को लाने का दावा कर रहे हैं, उन्हें न ला पाए तो उस स्थिति में क्या करेंगे इसकी कोई तैयारी नहीं थी.
एक बड़ी ग़लती शरद पवार और अजित पवार के रिश्तों को समझने में भी हुई. ये दोनों एक परिवार के लोग हैं.
बीजेपी ने ये आकलन लगा लिया था कि सत्ता में आने की कोशिश में ये परिवार टूट जाएगा. बीजेपी ने ये आकलन नहीं लगाया कि परिवार में एक भावनात्मक जुड़ाव होता है जो परिवार से अलग होने वाले व्यक्ति पर बड़ाअजित पवार को समझाना परिवार के लोगों के लिए इसलिए भी आसान था क्योंकि उप मुखयमंत्री का पद उन्हें एनसीपी-शिवसेना-कांग्रेस गठबंधन में भी मिल रहा था और बीजेपी के साथ जाने पर भी. इससे ज़्यादा उन्हें कुछ मिल नहीं रहा था.
इसलिए परिवार भी तोड़ें, पार्टी भी तोड़ें और जो मिल रहा है वो भी कुछ बहुत बड़ा नहीं है. अजित पवार के लिए ये कोई लाभ का सौदा नहीं था, शायद उनके परिवार के लोग उन्हें ये समझाने में कामयाब रहे हैं. एनसीपी प्रमुख शदर पवार की ताक़त को बीजेपी ने कम आंका, ये उनकी बड़ी ग़लती थी.
विधानसभा चुनाव से पहले शरद पवार के ख़िलाफ़ प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस आने के बाद जिस तरह उन्होंने पलटवार किया उसके बाद बीजेपी को कम से कम 15-20 सीटों का नुक़सान हुआ. महाराष्ट्र में, ख़ास कर मराठा राजनीति में शरद पवार अभी भी बड़े नता हैं. इसमें कोई विवाद नहीं है और ये शरद पवार ने पूरी तरह साबित भी कर दिया. लेकिन बीजेपी ये बात नहीं समझ पाई.शरद पवार से बीजेपी का और प्रधानमंत्री मोदी का लंबा नाता रहा है. मोदी ख़ुद मान चुके हैं कि जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब वो बीच-बीच में शरद पवार को फ़ोन करते थे और प्रशासनिक और राजनीतिक मसलों पर उनसे सलाह लेते थे. लेकिन ये दोस्ती क्यों टूटी, क्या उसका आधार था या उससे क्या मिला अभी ये समझना मुश्किल है. शरद पवार एक अलग तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं. 1978 में वे अपने राजनीतिक गुरु वसंतदादा पाटिल से बग़ावत कर के कांग्रेस से अलग हुए और मुख्यमंत्री बन गए. उस समय वो केवल 37 साल के थे.
उसके बाद से वो महाराष्ट्र की राजनीति में एक अलग ध्रुव की तरह स्थापित हो गए. कभी कांग्रेस में आए, कभी गए, तीन बार मुख्यमंत्री भी बने. जो पार्टी उन्होंने बनाई उसे दो दशक से अधिक समय हो गया है. उनकी पार्टी आज महाराष्ट्र में कांग्रेस से बड़ी पार्टी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है. अपने जनाधार को वो बनाए रखने में कामयाब हुए हैं. वो राजनीतिक रणनीति को समझने वाले दिग्गजों में शामिल हैं. उन्हें समझ आता है कि क्या कहना है और क्या नहीं. विधानसभा चुनाव के दौरान लगभग 80 साल की उम्र के शरद पवार ने अपना जुझारूपन दिखाया है. चुनाव के दौरान बारिश में खड़े हो कर उनके भाषण देने की एक तस्वीर ने चुनाव का रुख़ बदल दिया था.
राज्य में सरकार गठन के मामले में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को शामिल करना बड़ी ग़लती थी.
अगर ये काम सामान्य तरीक़े से होता- कैबिनेट की बैठक होती, उसमें राष्ट्रपति शासन वापस लेने का फ़ैसला होता और और फिर शपथ ग्रहण होता तो शायद पार्टी की उतनी बदनामी न होती. फिलहाल यही बातें हो रही हैं कि ऐसी क्या जल्दी थी कि सारे काम आधी रात को हुए. प्रधानमंत्री को इमरजेंसी प्रोविज़न्स का इस्तेमाल करना पड़ा और ये फ़ैसला लिया गया लेकिन फिर बाद में पता चला कि पार्टी की कोई तैयारी नहीं थी. शायद सामान्य तरीक़े से सब कुछ होता को मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी नहीं जाता. कोर्ट में एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना का यही कहना था सरकार को ग़लत तरीके से शपथ दिलाई गई है, इसे बर्ख़ास्त कया जाए. उनका सवाल था कि “ऐसी कौन सी आपात स्थिति आ गई थी कि देवेंद्र फडणवीस को सुबह आठ बजे शपथ दिलवाई गई. जब ये बहुमत का दावा कर रहे हैं तो इसे साबित करने से क्यों बच रहे हैं.”
बीजेपी ने इन तीनों पार्टियों को भरपूर मौक़ा दिया कि वो अपने आपसी मतभेद मिटा कर साथ आएं और उनसे लड़ें.
उनके पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था कि वो अपने सारे मतभेद भुला दें और एक हो जाएं, क्योंकि उनसे अस्तित्व पर ही अब सवाल खड़ा हो गया था.
बीजेपी के पास एक मौक़ा था कि अगर एनसीपी के साथ ही गठबंधन करना था तो उन्हें सीधे शरद पवार के साथ बात करनी चाहिए थी.
उनकी शर्तों को मान कर अगर बीजेपी ने गठबंधन किया होता तो सरकार भी चलती और शिवसेना को भी उनकी जगह दिखा सकते थे. महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ जो कुछ हुआ उसके लिए देवेंद्र फडणवीस अकेले ज़िम्मेदार नहीं ठहराए जा सकते. जो हुआ उसके लिए राष्ट्रीय नेतृत्व भी ज़िम्मेदार है. पहला तो ये कि महाराष्ट्र कोई छोटा राज्य नहीं है और दूसरी ये कि कर्नाटक में बीजेपी यही ग़लती कर चुकी है. अगर आप शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की सरकार को बनने देते तो ये सरकार अपने अंदरूनी मतभेदों के कारण गिर जाती और बीजेपी के लिए बेहतर स्थिति होती. दोबारा चुनाव होते तब भी भाजपा के लिए बेहतर होता और अगर चुनाव न भी होते तो भी बीजेपी को लाभ होता. लेकिन अभी जो कुछ हुआ उससे बीजेपी को केवल नुक़सान ही नुक़सान है. देवेंद्र फडणवीस की छवि को इसमें बहुत बड़ा नुक़सान है क्योंकि वो एक ऐसे नेता के रूप में उभर रहे थे जिन्हें महाराष्ट्र से भविष्य के संभावित प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा था.बीजेपी के सभी मुख्यमंत्रियों में उन्हें सबसे बेहतर और दिल्ली के अधिक क़रीब भी माना जा रहा था. उन्हें पार्टी हाईकमान से जैसा समर्थन मिल रहा था उतना किसी और मुख्यमंत्री को कम ही मिला है. लेकिन जो कुछ हुआ उससे उनकी प्रतिष्ठा और राजनीतिक समझ को बहुत बड़ा धक्का लगा है. इस पूरे घटनाक्रम में वो किसी भी क़ीमत पर और किसी से भी गठबंधन कर सत्ता हासिल करने वाले नेता के रूप में सामने आए हैं.

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