Economy

भारतीय अर्थव्यवस्था की व्यथा-कथा

इसमें आर्थिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है। दिलचस्प यह है कि अर्थशास्त्री डेविड फ्रीडमैन भी अपनी किताब, ‘हिडन ऑर्डर- द इकोनॉमिक्स ऑफ एवरीडे लाइफ में भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं। वह लिखते हैं, ‘हममें से अधिकांश लोग, जो हमारे पास मौजूद है, उससे कुछ ज्यादा की चाह रखते हैं। वास्तव में अधिकांश लोग जीवनपर्यंत इसी ‘थोड़े से और अधिक की जुगत में लगे रहते हैं। मसलन अगर हमारे पास एक घर है तो हम उससे बड़े घर की ख्वाहिश रखने लगते हैं। हमारा घर यदि बड़ा हो तो फिर हम यह चाहते हैं कि वह किसी बेहतर इलाके में हो। यदि हम साइकिल पर चलते हैं तो मोटरसाइकिल खरीदना चाहते हैं। यदि हमारे पास कोई छोटी कार है तो हम बड़ी और आलीशान कार की तमन्‍ना रखने लगते हैं। यह अंतहीन सिलसिला कहीं थमता नहीं दिखता। जिंदगी ऐसे ही चलती रहती है। जीवन में अधिक और बेहतर चीजों का उपभोग करने की निरंतर चाह बनी रहती है। हमारा मन ऐसी ख्वाहिशों की टोह लेता रहता है, लेकिन केवल इसी से काम नहीं चलता। ऐसा इसलिए, क्योंकि कुछ भी मुफ्त नहीं आता। नई-नई चीजें खरीदने और सेवाओं का उपभोग करने के लिए पैसे लगते हैं और इन पैसों को कमाना पड़ता है। पैसे कमाने का यह चक्र भी कुछ ऐसे ही चलता है। लोग अपने श्रम से, अपने कौशल से पैसा कमाते हैं। या तो वे नौकरी करके धनार्जन करते हैं या फिर व्यापार से। व्यापार छोटा-मोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। जो पैसा कमाया जाता है, वह खर्च भी होता है और इस पैसे से लोग सामान और सेवाओं का उपभोग करते हैं। इससे अन्यान्य उद्यमों का फायदा होता है। जो लोग व्यापारियों के यहां काम कर रहे होते हैं, वे उन्हें वेतन देते हैं। यह वेतन भी खर्च होता है। इससे और लोगों तथा व्यापारियों का फायदा होता है। वे फिर इस पैसे को खर्च करते हैं और इससे अन्य लोगों को लाभ होता है। ऐसे ही पूरा उपभोग चक्र चलता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि किन्ही कारणों से लोग पहले जैसी तेजी से पैसा खर्च नहीं करते या फिर पैसा खर्च करना कम कर देते हैं। इससे अन्य लोगों और व्यापार की कमाई पर असर पड़ता है और वे भी पहले जितना खर्च नहीं करते। इससे उपभोग चक्र पर असर पड़ता है और आर्थिक विकास की दर पहले जैसी नहीं रहती और डगमगा जाती है। इस कड़ी में 1929 के साल में अमेरिका में आई महामंदी यानी ग्रेट डिप्रेशन की चर्चा करना उपयोगी होगा। अक्टूबर 1929 में अमेरिकी शेयर बाजार और कमोडिटी बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई। इससे लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। परिणामस्वरूप उनकी खपत भी घट गई। इससे व्यापार और अन्य उद्यम प्रभावित हुए। कारोबारियों ने बड़े पैमाने पर छंटनी की, जिससे तमाम लोग बेरोजगार हो गए। इससे खपत में जबर्दस्त गिरावट आई और उपभोग चक्र टूट गया। तब हालात कितने खराब थे, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्र्रेट डिप्रेशन में बेरोजगारी दर करीब 25 प्रतिशत तक पहुंच गई थी इंसान अपने आसपास की दुनिया से काफी हद तक प्रभावित होता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी ऐसे आदमी को जानता था, जिसे नौकरी से निकाला गया था। इससे उनके मन में भी नौकरी से निकाल दिए जाने का खौफ कायम था। इसका सीधा-सीधा असर खपत पर पड़ रहा था। जब नौकरी जाने का डर दिमाग में बैठ जाए तो लोग पैसे बचाने की कोशिश करते हैं। ऐसे समय में अगर घर में एक कमरा कम हो या गाड़ी ठीक-ठाक न हो या फिर बच्चे उतने अच्छे स्कूल में न पढ़ रहे हों, तो यह ज्यादा मायने नहीं रखता।
ग्रेट डिप्रेशन पर कई लेखकों ने अपनी कलम भी खूब चलाई है। इसी कड़ी में रॉबर्ट शिलर ने अपनी किताब ‘नैरेटिव इकोनॉमिक्स में लिखा है, ‘कुछ लोगों ने कार या अन्य प्रमुख उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदना स्थगित कर दिया जिसके कारण ऑटो और उपभोक्ता-उत्पाद उद्योगों में नौकरियों का नुकसान हुआ, जिससे उपभोग प्रभावित हुआ। इससे तमाम नौकरियां खतरे में पड़ गईं। यही कहानी कई वर्षों तक चलती रही।
इस तरह देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था किसी भी हिसाब से डिप्रेशन में नहीं है, मगर यहां आर्थिक सुस्ती का माहौल तो है। इसका मुख्य कारण है उपभोग चक्र में दरार। जावेद अख्तर जिन आकांक्षाओं की बात अपने शेर में करते हैं, उन आकांक्षाओं को अभी तमाम लोगों ने किनारे किया हुआ है।
वर्ष 2019-20 के दौरान निजी उपभोग व्यय नौ प्रतिशत (मुद्रास्फीति के लिए समायोजित नहीं) बढ़ने की उम्मीद है। यह 2004-05 के बाद से सबसे धीमी वृद्धि है। निजी उपभोग व्यय वह धन है, जो आप और हम वस्तुओं एवं सेवाओं के उपभोग पर खर्च करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि उपभोग चक्र में दरार क्यों पड़ गई है? जवाब इस तथ्य में निहित है कि हम अपने जीवन से जो अतिरिक्त चाहते हैं, उसके लिए पैसा खर्चा करना पड़ता है और इसके लिए आय में बढ़ोतरी अच्छी गति से होती रहनी चाहिए, परंतु ऐसा नहीं हो रहा है।
वर्ष 2019-20 में प्रति व्यक्ति आय यानी एक भारतीय की औसत आय 6.8 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है। यह वर्ष 2002-03 के बाद की सबसे धीमी गति है। अक्टूबर 2019 में, अक्टूबर 2018 की तुलना में पुरुष ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी में तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि महिलाओं के लिए यह वृद्धि 3.7 प्रतिशत ही थी। यही कहानी मध्यम वर्ग के लिए भी सही है। आकलन वर्ष 2015-16 के लिए आयकर रिटर्न में घोषित औसत वेतनभोगी आय 6.2 लाख रुपए थी। यह आकलन वर्ष 2018-19 में 6.9 लाख रुपए तक बढ़ गया था (2017-18 में अर्जित आय को आकलन वर्ष 2018-19 के दौरान आयकर रिटर्न के माध्यम से घोषित किया गया था)। इसका अर्थ है कि प्रति वर्ष वेतन में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह वृद्धि शहरी मुद्रास्फीति की दर से भी कम है।
आय में वृद्धि पहले ही धीमी गति से हो रही है और ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं कि इसने निजी उपभोग व्यय को धीमा कर दिया है। निजी उपभोग व्यय अर्थव्यवस्था का करीब 60 प्रतिशत हिस्सा है। इससे अर्थव्यवस्था भी धीमी पड़ गई है। आय वृद्धि इसलिए धीमी हो गई है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में पर्याप्त निवेश नहीं हो रहा है। 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद में निवेश का हिस्सा गिरकर 28.1 प्रतिशत हो जाएगा। यह 2000-01 के बाद से सबसे कम है। निवेश धीमा होने से पर्याप्त रूप से नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं और इसके कारण आय में वृद्धि पहले जैसी नहीं हुई है। यही भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी कहानी है।

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